'आज की कहानी'
किए हुए कर्म भोगने ही पड़ते हैं
प्रस्तुति - मदन शास्त्री 'धरैल', नालागढ़, हिमाचल प्रदेश
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कर्म किया कि उसका फल चिपका ही समझलो ....ओझा, फिर आप फल भोगने से छूटने के लिए... कितनी भी कोशिश करो...., फिर भी फल बिना भोगे कर्म शांत नहीं होगा..। आपके पीछे-पीछे फल घूमता ही रहेगा.. और भोग कर ही छुटकारा होगा...।
यदि आप बहुत बुद्धिमान है ... और इस दुनिया की कोर्ट में से... अच्छे वकील की सलाह से छूट भी सके.. , लेकिन ... ऊपर की सुप्रीम कोर्ट... कुदरत की कोर्ट... आपको पकड़ लेगी.., छोड़ेगी नहीं ,,, वहां वकील की बहस या सिफारिश नहीं चलेगी.....।
एक दृष्टांत है---- बहुत वर्ष पहले की बात है...., अहमदाबाद में एक उत्कृष्ट विद्वान सेसन्श जज थे.. । जाति के नागर ब्राह्मण और कट्टर वेदांती , कर्म के नियम के पूर्ण अभ्यासी थे ..., साबरमती नदी के पास रहते थे।
एक सुबह ब्रह्म मुहूर्त में कुछ अंधेरे में ही नदी के तट पर टहल रहे थे... , वहां उनके नजदीक से एक आदमी दौड़ता हुआ निकला..., उसकी पीठ पर पीछे से आने वाले दूसरे आदमी ने खंजर से प्रहार किया.. और आगे वाला आदमी गिर पढ़ा... और तत्काल मृत्यु के शरणापन्न हुआ...। यह दृश्य जज ने.. प्रत्यक्ष.. अपनी आंखों से देखा... , खूनी भाग गया...., उसको भी उस जज ने ठीक से पहचान लिया...।
सेशन जज घर आए... किंतु इस घटना की किसी से कोई भी बात कही नहीं ...। कारण यह खून का केस आखिर तो उनकी कोर्ट में ही आने वाला था ...., फिर पुलिस पूछताछ हुई.., छह माह में संपूर्ण पूछताछ समाप्त हुई....। खून केस दाखिल किया गया..., सेशन जज ने देखा कि वास्तविक खूनी तो उन्होंने उस दिन प्रत्यक्ष देखा था... , उसके बदले में कोई दूसरे ही मिलते जुलते आदमी को पुलिस ने अपराधी के रूप में हाजिर किया है।
फिर केस चला , केस के योग्य बहस शुरू हुई और बनावटी, बेकसूर ,अपराधी वास्तविक खूनी के रूप में पेश हुआ... । सेशन जज पूरी तरह से समझते थे... कि यह बनावटी अपराधी वास्तविक खूनी नहीं है ..., किंतु पुरावे के कायदे के अनुसार न्यायाधीश को पुरावे के आधार पर ही जजमेंट देना पड़ा...। जिसमें न्यायाधीश का अपना अनुभव काम नहीं लग सकता था.. । इसलिए बनावटी अपराधी को योग्य पुरावे के आधार पर... खूनी साबित करके फांसी की सजा सुनाने का सेशन जज का न्याय स्वभाविक ही था ।
किंतु यह सेशन जज प्रखर वेदांती और ईश्वर के कर्म के कायदे के पक्के अभ्यासी थे..। उनको लगा कि वास्तविक खूनी छूट रहा है... और निर्दोष बेकसूर अपराधी मारा जा रहा है ...। इसलिए कोर्ट में खून की सजा का हुक्म सुनाने से पहले.. सेशन जज ने.. उस अपराधी को अपने चेंबर में गुप्त रूप से बुलवाया।
बनावटी अपराधी रो पड़ा, और कहा कि मैं साफ निर्दोष हूँ ..., कारण...! पुलिस को सच्चा खूनी नहीं मिला....! इसलिए मुझको पहले के मेरे निजी गुप्त अपराध के आधार पर पुलिस ने पकड़ कर मेरे विरुद्ध सबूत रख लिया , और साबित कर दिया कि मैं खूनी हूं....।
सेशन जज ने कहा -- कि यह बात मैं अच्छी तरह जानता हूँ..., सच्चा खूनी मैंने अपनी आंखों से प्रत्यक्ष देखा है.... , उसको मैं पहचानता भी हूं..., और तू निर्दोष है... यह भी अच्छी तरह जानता हूँ...., किंतु मेरे फैसले में यह बात कानूनी तौर पर ला सकता नहीं... , कायदा सबूत के तौर पर चलता है... और सबूत संपूर्ण तरह से तुम्हारे खिलाफ है...., इसलिए मैं तुम्हें कानून के अनुसार खूनी जाहिर करके फासी की सजा दूंगा ।
किन्तु ईश्वर के बने हुए कर्म के कायदे में कहीं गलती तो नहीं है..., उसकी जांच पड़ताल करने के लिए और तय करने के लिए...., मैं तुझे गुप्त में एक सवाल पूछता हूं.... ?
जज और मुजरिम का संवाद चल रहा है....
जज- ईश्वर के बने हुए कर्म के कायदे में... कहीं गलती तो नहीं है.....? उसकी जांच पड़ताल करने के लिए.. और तय करने के लिए.... मैं तुझे गुप्त में एक सवाल पूछता हूँ.. .?
उसका तुम मुझे ठीक सच्चा जवाब देना.... , अब मरते समय थोड़ा झूठ बोलना नहीं.. .., मेरा सवाल यह है---- क्या भूतकाल में तुमने किसी भी समय... , किसी का भी.... खून किया था.... ? बेकसूर अपराधी गदगद स्वर में ईश्वर को साक्षी मानकर...,,, मैं सच सच कह रहा हूँ...कि मैंने भूतकाल में दो खून किए थे.... , और उसकी कोर्ट में कार्यवाही भी चली थी ..., उस समय मैं काबिल वकील की सहायता से.... और पुलिस विभाग को घूस से संतुष्ट करके... उन दोनों मुकदमों में निर्दोष छूट गया था.... , परन्तु .... इस मुकदमे में वास्तविक निर्दोष होने पर भी... मारा जा रहा हूँ...।
सेशन जज को विश्वास हो गया... कि ईश्वर के कर्म के कायदे में कहीं भी गलती नहीं है... , पहले दो खून करने पर भी अपराधी के प्रताप से( तप से) उनके क्रियमाण कर्मों का फल मिलने में.. देरी हुई.. और वह कर्म संचित में जमा हो गया..., और जब उसका पुण्य का संचय समाप्त हो गया. . , तो उसने पहले जो दो खून किए थे...., उसके फलस्वरूप वह संचित कर्म पक गया...।
और इस मुकदमे में निर्दोष होने पर भी .. अकस्मात सकंजे में आ गया.. और संचित कर्म पक कर... प्रारब्ध के रूप में... उसके सामने खड़ा हो गया...। उसको फांसी के मंच पर लटका दिया गया...।
कर्म के कायदे में... वकील या जज की काबिलियत... या सिफारिश... चलेगी नहीं। अगर पुण्य का संचय है.... या क्रियमाण कर्म पकने में देरी हो जाए... , उस समय जगत की दृष्टि से.... वह गुनाहगार होने पर भी निर्दोष देखा जाएगा....। किन्तु संचित कर्म समय पर पक कर .... प्रारब्ध होकर .. सामने आ ही जाते है...., वह फल देकर शांत होते हैं।
इसलिए कर्म करने से पहले... हजार बार सोचना चाहिए ..। कर्म हो जाने पर.. उसके फल से छूटने के लिए.... बेकार दौड़ना... या प्रयत्न करना नहीं चाहिए.. । किंतु जब वह कर्म पककर ... प्रारब्ध बनकर ... सामने आ जाए.., तो सीना (छाती ) तान कर.... उसका सहर्ष सामना करना चाहिए.... और भोग लेना चाहिए...। वरना हंसते-हंसते किया हुआ पाप... रोते रोते भी भोगना पड़ता है...।
प्रस्तुति - मदन शास्त्री 'धरैल' नालागढ़ हिमाचल प्रदेश
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