बोधकथा
महाराज शिवी
प्रस्तुति - 'मनितोष सरकार' (संपादक)
'हमसफर मित्र न्यूज'
महाराज शिवि अपनी शरणगत रक्षा के लिये प्रसिद्ध थे। एक बार देवराज इन्द्र तथा अगिनदेव ने उनकी परीक्षा लेने के लिये कबूतर और बाज का रूप धरण किया। महाराज शिवि अपने प्रांगण में बैठे थे। सहसा एक कबूतर काँपते हुए उनकी गोद में आकर गिरा और छिपने का उपक्रम करने लगा। महाराज शिवि को आशंका हुई कि अवश्य ही यह कबूतर भयाक्रांत है ओर शरण पाने के लिये ही उनकी गोद में छिपने का प्रयास कर रहा है।
महाराज शिवि की आशंका सत्य हुई। कुछ ही क्षणें में एक बाज भी आकर कबूतर के ऊपर उसका भक्षण करने की इच्छा से मंडराने लगा।
शिवि ने बाज से कहा- “अब यह कबूतर मेरी शरण में आ गया है। अतः इसकी रक्षा मेरा धर्म है। तुम चुपचाप यहाँ से चले जाओ।“
शिवि का संकेत समझाकर बाज ने मानवी भाषा में कहा- “महाराज, कबूतर को प्रकृति ने मेरा आहार बनाया है। किसी का आहार छीन लेना धर्म नहीं है। मैं बहुत भूखा हूँ। यदि मेरे आहार रूपी कबूतर को आप मुझे नहीं देंगे तो मैं भूख से मर जाऊँगाा। इससे आप हत्या के भागी होंगे। क्या तब यह अधर्म नहीं होगा ?“
बाज का कथन राजा को ठीक ही लगा । अतः उन्होंने बाज से कहा, “भाई तुम्हारा कहना भी ठीक ही है पर मरा भी धर्म शरणागत की रक्षा करना है। अतः मैं शरणागत हुए इस कबूतर का त्याग कदापि नहीं करूँगा। तुम्हारा पेट तो किसी भी पशु के माँस से भर जायेगा।“
पर बाज भी अपनी बात पर अड़ा रहा। उधर राजा शिवि कबूतर को बाज को न देने के लिये दृढ प्रतिज्ञत थे। तब महाराज शिवि ने एक शर्त रखते हुए बाज से कहा- “अच्छा यदि मैं तुम्हें एक कबूतर के तौल के बराबर अपना माँस तुम्हारी भूख मिटाने के लिये दे दूँ तो क्या तुम मान जाओगे?
शिवि की इस शर्त को बाज ने स्वकार कर लिया। तत्काल महाराज शिवि ने तराजू लाने की आज्ञा दी । तराजू लाया गया।
तराजू के एक पलड़े में कबूतर को बिठलाया गया। अब महाराज शिविर अपने दाएँ हाथ से अपना बाँया अंग काटकर दूसरे पलड़े में रखने लगे। बड़ा लोमहर्षक दृश्य था। पर कबूतर वाला पलड़ा भारी ही रहा। महाराज शिवि ने धीरे-धीरे अपने सभी ही रहा बत महाराज शिवि स्वयं जाकर पलड़े पर बैठ गये।
यह महाराज शिवि की शरणागत की रक्षा की परीक्षा का चरम क्षण था। एक नन्हें प्राणी की रक्षा के लिये उन्होने अपना सम्पर्ण शरीर ओर अस्तित्व ही दाँव में लगा दिया था।
देवराज इन्द्र ओर अगिन देव महाराज शिवि के इस दान ओर तयाग को देखकर आश्चर्यचकित थे। अतः ते दोनों अपने असली रूप में प्रकट हो गये।
देवराज इन्द्र ने कहा-“महाराज शिवि आप धन्य हैं। आप हमारी परीक्षा में खरे उतरे हैं। शरणागत की रक्षा के लिये आप इस संसार में अनन्त काल तक जाने जायेंगे।
देवराज इन्द्र की कृपा से महाराज शिवि के कटे हुए अंग यथावत अपने-अपने स्थान पर लग गए। उनका शरीर पूर्व की तरह स्वस्थ एवं निरोग हो गया।
सब जीवों के प्रति दयाभाव तथा शरणागत की रक्षा करना हिन्दू धर्म की अहम विशेषता है।
'शाखा पुस्तिका' से साभार
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