लोककथा
राजा का आचरण
लेखक - तापसी सरकार
'हमसफर मित्र'।
बहुत पुरानी बात है। किसी राज्य में भयानक अकाल पड़ा। वहां के राजा ने आज्ञा दिया कि अनाज के भंडार को गोदाम प्रजा के लिए खोल दिए जाए। सभी अनाज के भंडार व गोदाम प्रजा के लिए खोल दिए गए। कुछ ही दिनों में राज्य का भंडार खाली हो गया। राजा चिंतित हो गए। उन्होंने महल की रसोई में पकने वाला भोजन गरीबों और जरूरतमंदों को बांटने का आदेश दिया। धीरे-धीरे महल का अनाज भंडार भी खाली हो गया। हालत यह हो गई कि 1 दिन राजा परिवार के पास भी खाने को कुछ नहीं बचा।
उस दिन शाम को अचानक एक अजनबी राजा के दरबार में आया। उसके हाथ में एक बड़ा सा कटोरा था, उसमें दूध, गेहूं और चीनी से बना दलिया था। उसने भूखे राजा को वह कटोरा दे दिया और राजा ने उसे चखा भी नहीं। पहले अपने सेवकों को बुलाया और कहा तुम सब के भूखे रहते मैं भला कैसे ग्रहण कर सकता हूं। सेवक भूखे तो थे लेकिन राजा को भूखा देखकर उन्होंने अनमने भाव से ही दलिया खाया और उसमें से भी आधा राजा को उसके परिवार के लिए बचा दिया। जैसे ही राजा अपने परिवार के साथ वह बचा दलिया खाने बैठा दरवाजे पर एक भूखा ब्राम्हण आ पहुंचा। राजा ने वह भोजन भी भूखे ब्राह्मण को दे दिया।
उसे खाकर तृप्त होने के बाद उसने अपने वेश बदला। वह स्वयं भगवान थे। उन्होंने राज्य के धैर्य की परीक्षा लेने के लिए ऐसा रूप धारण किया था। उन्होंने राजा से कहा मैं तुम्हारे आचरण से अत्यंत प्रसन्न हूँ। जो वरदान मांगना चाहो मांग लो। भगवान को सामने पाकर राजा उनके चरणों में गिर पड़ा और बोला हे प्रभु! मुझे आपकी कृपा से पहले से ही सब कुछ हासिल है। मैं परलोक का भी चाहत नहीं रखता। मुझे ऐसा हृदय दे जो दूसरों की पीड़ा को महसूस करें और ऐसा मन और तन दे जो दूसरों की सेवा में लगा रहे। भगवान तथास्तु कहकर अंतर्ध्यान हो गए। उसी वर्ष राज्य में जमकर बारिश हुई और फिर कभी अकाल नहीं पड़ा।
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