मुगलों का देन है पराठे और बिरियानी
'हमसफर मित्र'।
सदियों से चले आ रहे पराठे घर पर जब हम बड़े चाव से खाते हैं तो हम यह नहीं सोचते हैं कि आखिर इसकी शुरुआत कहा से हुई है और किसने की होगी। पराठे का उपयोग तो सभी करते हैं पर पंजाबी लोग कुछ ज्यादा ही करते हैं। इसलिए हम सोचते हैं कि सबसे पहले पंजाबी ने ही इसका इस्तेमाल शुरू किया होगा। पर ऐसा नहीं है। भारत में सबसे पहले मुगलों ने ही इस डिश को लाया है।
मुगल दरवार में पराठे अथवा बिरियानी बनाने वाले कोई कायस्थ था, जिसने इस तरह के डिश तैयार किया करते थे। कायस्थ मुगल दस्तरख्वान के ज्यादातर व्यंजनों को अपनी रसोई तक ले गए लेकिन अपने अंदाज और प्रयोगों के साथ। फर्क ये था कि कायस्थों ने शाकाहार का भी बखूबी फ्यूजन किया। मांसाहार के साथ भी कायस्थों ने ये काम किया। कवाब से लेकर मीट और बिरयानी तक का बखूबी नया अंदाज कायस्थों की रसोई में मिलता रहा। बिरयानी की भी एक रोचक कहानी है। कहा जाता है कि एक बार मुमताज सेना की बैरक का दौरा करने गईं। वहां उन्होंने मुगल सैनिकों को कुछ कमजोरी पाया। उन्होंने खानसामा से कहा कि ऐसी कोई स्पेशल डिश तैयार करें, जो चावल और मीट से मिलकर बनी हो, जिससे पर्याप्त पोषण मिले।इसके बाद मीट और पके हुए चावल को एक साथ मिलाकर बनाया गया। जो डिश सामने आई, वो बिरयानी के रूप में थी। बिरयानी में अगर मुगल दस्तरख्वान ने नए नए प्रयोग किए तो कायस्थों ने बिरयानी के इस रूप को सब्जियों, मसालों के साथ शाकाहारी अंदाज में भी बदला। चावल को घी के साथ भुना गया। सब्जियों को फ्राई किया गया। फिर इन दोनों को मसाले के साथ मिलाकर पकाया गया, बस शानदार तहरी या पुलाव तैयार हो गया।
अपने घरों में आप चाव से जो पराठे खाते हैं। वो बेशक मुगल ही भारत लेकर आए थे। दरअसल मुगलों की दावत में कायस्थों ने देखा कि फूली हुई रोटी की तरह मुगलिया दावत में एक ऐसी डिश पेश की गई, जिसमें अंदर मसालों में भुना मीट भरा था। इन फूली हुई रोटियों को घी से सेंका गया था। खाने में इसका स्वाद गजब का था। कायस्थों ने इस डिश को रसोई में जब आजमाया तो इसके अंदर आलू, मटर आदि भर दिया। ये कायस्थ ही थे। जिन्होंने उबले आलू, उबली हुई चने की दाल, पिसी हरी मटर को आटे की लोइयों के अंदर भरकर इसे बेला और सरसों तेल में सेंका तो लज्जतदार पराठा तैयार था। जब अगली बार आप अगर पराठे वाली गली में कोई पराठा खा रहे हों या घर में इसे तैयार कर रहे हों और ये मानें कि ये पंजाबियों की देन हैं तो पक्का मानिए कि आप गलत मान रहे हैं। असलियत में ये कायस्थों की रसोई का फ्यूजन है।
अब बात सरसो तेल और घी की चली है, तो ये भी बताता हूं कि इन दोनों का इस्तेमाल भारतीय खाने में बेशक होता था, लेकिन बहुत सीमित रूप मे। मशहूर खानपान विशेषज्ञ केटी आचार्य की किताब 'ए हिस्टोरिकल कंपेनियन इंडियन फूड' में कहा गया है कि चरक संहिता के अनुसार, बरसात के मौसम में वेजिटेबल तेल का इस्तेमाल किया जाए तो वसंत में जानवरों की चर्बी से मिलने वाले घी का। हालांकि इन दोनों के ही खानपान में बहुत कम मात्रा में इस्तेमाल की सलाह दी जाती थी। प्राचीन भारत में तिल का तेल फ्राई और कुकिंग में ज्यादा इस्तेमाल किया जाता था। उस दौर में कहा जाता था कि गैर आर्य राजा जमकर घी-तेल का इस्तेमाल करके ताकत हासिल करना चाहते थे। प्राचीन काल में सुश्रुत मानते थे ज्यादा घी-तेल का इस्तेमाल पाचन तंत्र में गड़बड़ी पैदा करता है। सुश्रुत ने जिन 16 खाद्य तेलों को इस्तेमाल के लिए चुना था, उसमें सरसों का तेल को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता था। इसके चिकित्सीय उपयोग भी बहुत थे।
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