'आज की कहानी'
पराई बेटी
'हमसफर मित्र न्यूज'
सुजाता जी थोड़ी सी मायूस हो गयी, अभी बेटी को भेज कर। यूँ तो खुश भी बहुत थी आजकल। अभी बेटे की शादी जो हुई है। बहू भी उनकी पसन्द की है, और बेटी अपने परिवार में खुश है।
अब तो उनकी जिम्मेदारियां लगभग खत्म हो गयी है, पर फिर भी बेटी एक बार घर रह कर जाए, तो दिल पर जोर तो पड़ता ही है। इसीलिए न चाहते हुए भी, कभी कभी आंखें छलछला रही थी।
अचानक उन्हें एक याद आया, एक लिफाफा, जो अंजू उन्हें जाते हुए थमा गयी थी, कि मम्मी इसे फुर्सत में बैठ कर पढ़ना, और विचार करना। ऐसे भागदौड़ में नही। लेकिन सब्र कहां था उन्हें ? जल्दी से उसे खोला, देखा तो एक खत था, उसे खोला औऱ पढ़ने बैठ गयी --
"माँ! बहुत खुश हूँ, कि आप अब माँ से एक सास भी बन गयी। यूँ तो मेरी शादी के बाद ही आप सास बन गयी थी। लेकिन फिर भी सास बहू के रिश्ते की अलग बात है।"
"मैं जानती हूँ, आप एक अच्छी माँ होने के साथ साथ, अच्छी सास भी बनेंगी। पर फिर भी कुछ बातें है, जो मैं आपसे कहना चाहती हूँ। जो मैंने खुद देखी और महसूस की है।"
"बहुत कोशिश की, आपसे खुद कहूँ, पर हिम्मत नही जुटा पायी, तो इस खत में लिख दिया।"
"जानती हूँ, मैं आपकी एकलौती बेटी हूँ। जिसके कारण आप मुझे बहुत प्यार करती है। आपकी हर चीज, मेरी पसन्द से ही होती है। फिर चाहे वो घर के पर्दे, चादर, पेंट हो या आपकी साड़ियां, ज्वैलरी कुछ भी, आज तक आपने मेरे बिना नही लिया। शादी के बाद भी, हम हमेशा साथ साथ ही बाजार गए।"
"पर अब मैं चाहती हूँ, कि आप ये मौका भाभी को दें। उनकी पसन्द न पसन्द का मान रखे।"
"आप चाहें, तो मैं उनके साथ हर समय मौजूद रहूँगी। पर उनके साथ या उनके पीछे, उनसे पहले या उनके विरोध में कभी नही। जब तक उनकी कोई बहुत बड़ी गलती न हो। क्योंकि अब इस घर पर, उनका हक है।"
"मैं जानती हूँ, आपको ये सब जान कर तकलीफ होगी और शायद आश्चर्य भी क्योंकि मैंने आपको बहुत कुछ है, जो कभी नही बताया।"
"पर माँ! मैं पिछले 5 सालों से ये सब देखती आ रही हूँ। मेरे ही ससुराल में मेरी बातों, मेरी भावनाओं या पसन्द का कोई महत्व नही है। सिर्फ और सिर्फ मेरी दोनो नन्दो को इसका हक़ है।"
"मैं वहां तो कुछ नही कर पाती, पर मैंने ये पहले ही से सोच लिया था, कि अपनी भाभी के साथ, ये सब नही होने दूंगी। मैं कभी भी उनके जैसी नन्द नही बनूंगी, न ही खुद जैसी अपनी भाभी को बनने दूंगी।"
"अब वो घर उनका है, उससे जुड़े फैसले लेने का हक़ भी उनका। चाहे वो छोटी बातें हो या बड़ी, उनकी सहमति सर्वोपरि है।"
"मैं भुगत चुकी हूँ। आप जानती है। माँ मैं जब अपने ही कमरे में कुछ बदलाव करती हूँ, तो दीदी मुझसे कैसे बात करती है? या घर में मैं कोई भी नई चीज ले आऊं, तो उसके लिए मुझे कैसे सुनाया जाता है?"
"हमारे यहां ये सब नही चलता, आपके मायके में होगा। ये शब्द तो हर दिन लगभग मैं 3-4 बार सुनती हूँ।"
"जब मैं उन्हें अपने साथ चलने को बोलती हूँ, तब भी उनके अलग अलग नखरे होते है। कभी आज नही भाभी, या आप अपनी पसंद से ही ले आइए न। साथ न जाने के ढेरों बहाने होते है। इसी लिए अब मैं खुद सब करने लगी हूँ, किसी की परवाह किये बिना।"
"आप जानती है, जब भैया मुझसे मिलने आते है न, तो घर में सबका मुंह देखने लायक होता है। अगर उसके हाथ में कोई बड़ा सा गिफ्ट या सामान देख ले, तो सब खुश हो जाते है। खाली हाथ उनका आना, किसी को गंवारा नही।"
"कहते है अभी पिछले हफ्ते ही तो आया था, कोई खास काम था क्या ? मैं जानती हूँ, इसीलिए उन्होंने अब घर आना भी कम कर दिया। मुझे यकीन है, कि भैया ने ये बात आपको नही बताई होगी।"
"इसी लिए आप प्लीज भाभी के मायके से किसी के आने पर, तानाकशी न करिएगा। क्योंकि मैं इसका दर्द जानती हूँ, और घर वालों से मिलने की खुशी भी।"
"कभी उन्हें ये मत कहिएगा, कि घर से क्या सीख कर आई है ? जो भी नही आता, प्यार से सिखाइयेगा, जैसे आपने मुझे सिखाया था।"
"बस यही कहना था आपसे, कि माँ! अब मैं पराई होना चाहती हूँ।"
--आपकी अंजू
सुजाता जी की आंखें भर आयी, गला रुंध गया, मुंह से एक शब्द नही निकल रहा था। उनकी छोटी सी अंजू आज इतनी बड़ी हो गयी, कि अपनी माँ को ही उसने इतनी सारी सीख दे डाली। और खुद सालों से क्या क्या सहन कर रही है ? इसकी भनक भी कभी नही लगने दी।
सुजाता जी ने अंजू से बात करने के लिए फ़ोन उठाया, उधर से हेल्लो की जवाब में सन्नाटा था, तो इधर एक कंपकपी थी...!!
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