'आज की कहानी'
माँ, मैं भी राखी बाँधूँगी
'हमसफर मित्र न्यूज'
श्रावण की धूम-धाम है | नगरवासी स्त्री-पुरुष बड़े आनंद तथा उत्साह से श्रावणी का उत्सव मना रहे हैं। बहनें भाइयों के और ब्राह्मण अपने यजमानों के राखियाँ बाँध-बाँध कर चाँदी कर रहे हैं। ऐसे ही समय एक छोटे-से घर में दस वर्ष की बालिका ने अपनी माता से कहा– माँ, मैं भी राखी बाँधूँगी।
उत्तर में माता ने एक ठंडी साँस भरी और कहा–किसके बाँधेगी।
बेटी–आज तेरा भाई होता, तो……।
माता आगे कुछ न कह सकी| उसका गला रुँध गया और नेत्र अश्रु पूर्ण हो गए।
अबोध बालिका ने अठलाकर कहा–तो क्या भइया के ही राखी बाँधी जाती है और किसी के नहीं ? भइया नहीं है तो अम्मा, मैं तुम्हारे ही राखी बाँधूँगी।
इस दुःख के समय भी पुत्री की बात सुनकर माता मुसकराने लगी और बोली–अरी तू इतनी बड़ी हो गई–भला कहीं माँ के भी राखी बाँधी जाती है।
बालिका ने कहा- वाह, जो पैसा दे, उसी के राखी बाँघी जाती है।
माता–अरी पगली| पैसे भर नहीं-भाई के ही राखी बाँधी जाती है ।
बालिका उदास हो गई |
माता घर का काम-काज करने लगी। घर का काम शेष करके उसने पुत्री से कहा—आ तुझे निलहा( नहला) दूँ।
बालिका मुख गम्भीर करके बोली–मैं नहीं नहाऊँगी।
माता-क्यों, नहाबेगी क्यों नहीं?
बालिका–मुझे क्या किसी के राखी बाँधनी है?
माता–अरी राखी नहीं बाँधनी है, तो क्या नहावेगी भी नहीं । आज त्योहार का दिन है। चल उठ नहा।
बालिका- राखी नहीं बाँधूँगी तो त्योहार काहे का?
माता–(कुछ कह होकर) अरी कुछ सिड़न हो गई है। राखी-राखी रट लगा रखी है। बड़ी राखी बाँधने वाली है। ऐसी ही होती तो आज यह दिन देखना पड़ता । पैदा होते ही बाप को खा बैठी । ढाई बरस की होते-होते भाई का घर छुड़ा दिया। तेरे ही कर्मों से सब नास (नाश) हो गया ।
बालिका बड़ी अप्रतिभ हुई और आँखों में आँसू भरे हुए चुपचाप नहाने को उठ खड़ी हुईं।
एक घन्टा पश्चात हम उसी बालिका को उसके घर के द्वार पर खड़ी देखते हैं। इस समय भी उसके सुन्दर मुख पर उदासी विधमान है। अब भी उसके बड़े-बड़े नेत्रों में पानी छलछला रहा है।
परन्तु बालिका इस समय द्वार पर क्यों? जान पड़ता है, वह किसी कार्यवश खड़ी है, क्योंकि उसके द्वार के सामने से जब कोई निकलता है, तब वह बड़ी उत्सुकता से उसकी ओर ताकने लगती है । मानो वह मुख से कुछ कहे बिना केवल इच्छा-शक्ति ही से, उस पुरुष का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने की चेष्टा करती थी; परन्तु जब उसे इसमें सफलता नहीं होती, तब उसकी उदासी बढ़ जाती है।
इसी प्रकार एक, दो, तीन करके कई पुरुष, बिना उसकी ओर देखे, निकल गए ।
अन्त को बालिका निराश होकर घर के भीतर लौट जाने को उद्यत ही हुई थी कि एक सुंदर युवक की दृष्टि, जो कुछ सोचता हुआ धीरे धीरे जा रहा था, बालिका पर पड़ी । बालिका की आँखें युवक की आँखों से जा लगीं। न जाने उन उदास तथा करुणा-पूर्ण नेत्रों में क्या जादू था कि युवक ठिठक कर खड़ा हो गया और बड़े ध्यान से सिर से पैर तक देखने लगा। ध्यान से देखने पर युवक को ज्ञात हुआ कि बालिका की आँखें अश्रुपूर्ण हैं । तब वह अधीर हो उठा । निकट जाकर पूछा बेटी क्यों रोती हो?
बालिका इसका कुछ उत्तर न दे सकी, परन्तु उसने अपना एक हाथ युवक की ओर बढ़ा दिया | युवक ने देखा, बालिका के हाथ में एक लाल डोरा है। उसने पूछा–यह क्या है? बालिका ने आँखें नीची करके उत्तर दिया–राखी | युवक समझ गया। उसने मुस्कराकर अपना दाहिना हाथ आगे बढ़ा दिया ।
बालिका का मुख-कमल खिल उठा | उसने बड़े चाव से युवक के हाथ राखी बाँध दी |
राखी बँधवा चुकने पर युवक ने जेब में हाथ डाला और दो रुपये निकाल कर बालिका को देने लगा; परन्तु बालिका ने उन्हें लेना स्वीकार न किया | बोली–नहीं, पैसे दो ।
युवक—ये पैसे से भी अच्छे हैं।
बालिका–नहीं-मैं पैसे लूँगी, यह नहीं ।
युवक—ले लो बिटिया । इसके पैसे मँगा लेना । बहुत-से मिलेंगे।
बालिका–नहीं, पैसे दो ।
युवक ने चार आने पैसे निकाल कर कहा-“अच्छा ले पैसे भी ले और यह भी ले।
बालिका—नहीं, खाली पैसे लूँगी।
तुझे दोनों लेने पड़ेंगे—यह कह कर युवक ने बलपूर्वक पैसे तथा रुपये बालिका के हाथ पर रख दिए |
इतने में घर के भीतर से किसी ने पुकारा अरी सरसुती (सरस्वती) कहाँ गई?
बालिका ने–आई-कहकर युवक की ओर कृतज्ञतापूर्ण दृष्टि डाली और चली गई । |
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